Monday, October 25, 2021

 साहित्यिक विरासत

साहित्यिक विरासत साहित्य की आधारशिला होती है। उसकी उपेक्षा से यदि उसमें दीमक लग जाए और वह कमज़ोर होती चली जाए तो वह इमारत बहुत समय तक खड़ी नहीं रह सकती। मेरे पिता आ. शिवपूजन सहाय ने इसका महत्व मुझको तभी (१९५० के आसपास )समझा दिया था जब मैं अभी होश संभाल ही रहा था। उनका अपना जीवन भी इसी विरासत को अपने जीवन और लेखन में संभालने-संजोने में लगा जिसे उन्होंने सर्वाधिक प्राथमिकता दी। मैं स्वयं भी अंग्रेजी पढ़ने के कारण इस परंपरावादी सोच से बहुत प्रभावित रहा और इस भ्रम से बचा रह सका कि परंपरा- चेतना अप्रगतिशीलता की निशानी है। प्रगतिशीलता का संबंध किताबी ज्ञान से अधिक सूक्ष्म संवेदना से होता है। अख़बारों को ओढ़कर प्रगतिशील नहीं बना था सकता। और न प्रगतिशीलता को ज़बरदस्ती खींच कर किसी ख़ास इलाके में कैद करके भी नहीं रखा जा सकता। पिता से विरासत में प्राप्त उसी प्रगतिशील चेतना के अंतर्गत मैंने उनके द्वारा संचित-संरक्षित साहित्यिक संपदा को अपनी सोच के मुताबिक संभालने और संरक्षित करने में अपने जीवन का अधिकांश समर्पित कर दिया। एक मूर्द्धन्य साहित्यकार पिता के एक साहित्यिक पुत्र होने का कोई मुगालता मैंने पाला ही नहीं। मैंने अपनी तरह से अपने जीवन को सार्थक बनाने की ही बराबर कोशिश की। मेरे यात्रा-पथ की कुछ झांकी आप मेरी लिखी- संपादित कुछ किताबों और मेरे नियमित ब्लॉगों में देख सकते हैं। विशेषतः पिता की विरासत से जुड़े मेरे कार्यकलापों को आप मेरी संपादित पुस्तकों और मेरे ख़ास ब्लाग - shivapoojan.blogspot.com पर देख सकते हैं। आज के इस पोस्ट पर इतना लिखना भी ज़रूरी लगा क्योंकि कुछ मेरे अपने लोग भी इस प्रसंग मेंअपने कारणों से भ्रमोत्पादन में लगे रहते हैं । अब तो मैं पाबे-रक़ाब भी हूं। लेकिन मैंने अपने जीवन में पिता की विरासत के प्रति पूर्ण निष्ठा रखी, इसका मुझको अपने तईं पूरा विश्वास है। आज के पोस्ट में आपके लिए वैसी ही एक सूचना।

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