Thursday, March 10, 2022

 सन्दर्भ : लेखक की रॉयल्टी

विनोद कुमार शुक्ल जी से संबद्ध प्रसंग में कल मैंने अपने फेसबुक पेज पर एक छोटी टिप्पणी लिखी थी | उसका सम्बन्ध मेरे पिता के उपन्यास 'देहाती दुनिया' से है जिसे पेपरबैक संस्करण में राजकमल १९९४ से छाप रहा है, और जिसकी रॉयल्टी विवरण और भुगतान गत ३ वर्षों से नहीं मिलने पर जो पत्र मैंने ७/१/२२ को ईमेल से भेजा था उसका आजतक कोई उत्तर नहीं आया है | उससे पहले भी उसका २००२-२००९ का कोई हिसाब या रॉयल्टी भुगतान हमें नहीं मिला | स्पष्टीकरण से यह पता नहीं चलता कि प्रकाशक ने कितनी प्रतियां कितने संस्करणों में छापी-बेचीं - यह लेखक कैसे जान सकेगा ? अनुबंध की एकतरफा शर्तों का पालन भी वे शायद ही करते हैं | ध्यातव्य है कि हमलोगों ने पिता के नाम पर एक न्यास शती-वर्ष १९९३ में ही स्थापित कर दिया था और उनकी सभी रचनाओं का स्वत्त्वाधिकार उस न्यास में समाहित कर दिया था | शुरू से न्यास के कार्य-कलाप का विवरण उसके ब्लॉग - shivapoojan.blogspot.com पर देखा जा सकता है |
उक्त टिप्पणी में मेरे पिता की एक पुस्तक ‘निबंधों की दुनिया:शिवपूजन सहाय’ का वाणी प्रकाशन से जुड़े एक प्रसंग का भी संक्षिप्त उल्लेख है | पुस्तक को वाणी ने बिना हमें कोई सूचना दिए और किसी अनुबंध के २०१२ में छाप लिया | (C) में ‘लेखक और उत्तराधिकारी’ छापा, पर न इसकी कोई सूचना दी, और न २०१२ से २०१७ तक कोई रॉयल्टी विवरण या भुगतान हमें भेजा | जब २०१७ में मुझको पता चला और मैंने अमेज़न से पुस्तक की प्रति मंगाई और वाणी को पत्र लिखा, तब भूल स्वीकार करते हुए क्षमा-प्रार्थना की और २०१२ से २०१७ तक का ७.५% रॉयल्टी का चेक (६००/१८५ बिकी प्रति का) भुगतान भेजा जो न्यास के खाते में जमा हुआ | २.५% रॉयल्टी अंश संपादक के नाम रख लिया जबकि (C) में केवल लेखक का नाम है, और नियमतः १०% रोयल्टी पर केवल लेखक का अधिकार होता है | पुस्तक का सम्पादन भी कितना अशुद्धि-पूर्ण है इसकी कुछ झांकी ब्लॉग-प्रविष्टि में देखी जा सकती है | विनोद शुक्ल-विवाद में राजकमल के स्पष्टीकरण के प्रसंग में इन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है, क्योंकि दोनों प्रकाशन-गृह एक ही समूह के हैं | वाणी ने २०१८ से २०२१/२२ का फिर कोई रॉयल्टी विवरण या पूरा उचित भुगतान या भूल- सुधार आदि नहीं भेजा है, और न १६.१२.२१ के मेरे ईमेल पत्र का संतोषजनक कोई उत्तर दिया है | राजकमल के स्पष्टीकरण के साथ दोनों प्रकाशनों का यह श्याम-पक्ष भी सामने आना आवश्यक है, ताकि संतुलित निष्कर्ष निकल सके | इन दोनों प्रसंगों की चर्चा पत्र-प्रतिलिपियों के साथ किंचित विस्तार से न्यास के इसी ब्लॉग पर शीघ्र ही देखा जा सकता है |
ये दोनों हिंदी के सबसे बड़े प्रकाशन गृह हैं और एक मार्ग-दर्शक भूमिका ये निभा सकते हैं | मेरे पिता के रॉयल्टी शोषण की कहानी और बहुत पुरानी और लम्बी है, और मैं हिंदी-संसार की जानकारी के लिए उसे अपने दोनों ब्लॉग पर ही विस्तार से लिखना चाहता हूँ| ये ब्लॉग हैं –shivpoojan.blogspot.com & vibhutimurty.blogspot.com लिखने पर फेसबुक पर पूर्व सूचना भी दूंगा |
यह एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग है जो इस बार अपने समय से उजागर हुआ है, और मैं समझता हूँ प्रकाशकों और लेखकों के साथ ही पुस्तकों की थोक खरीद से जुडे सभी लोगों को मिलकर अब इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि यह चोरी, विश्वासघात और भ्रष्टाचार कैसे मिटे | शायद अब इसका समय भी आ गया है | मेरे पिता ने अपनी सम्पादकीय टिप्पणियों में इस पर विस्तार से लिखा है | एक-दो प्रकाशकों को लिखी उनकी नीम-कानूनी चिट्ठी भी ‘समग्र’-१० (२२८-३०) में प्रकाशित है जिसके अंश मैं फिर अपने इन ब्लॉगों पर भी डालूँगा | रॉयल्टी और पारिश्रमिक की मार से ही प्रेमचंद, निराला जैसे नवजागरण के अनेक लेखकों को घोर मुफलिसी में जीवन बिताना पड़ा | इससे हिंदी साहित्य लेखन की स्तरीयता और हित का प्रश्न गहराई से जुड़ा है | मेरा उद्देश्य केवल इस प्रश्न को समाधान के लिए उपस्थित करना है, लेकिन किसी प्रकाशक की प्रतिष्ठा को किसी प्रकार की हानि पहुँचाना मेरा कत्तई मकसद नहीं है | वाणी द्वारा प्रकाशित और, उनको लिखित वर्जना देने के बाद, मेरे सम्पादन में प्रकाशित पुस्तक'निबंध समग्र' के दोनों चित्र यहाँ दिए गए हैं जिनमें मेरे द्वारा संपादित ‘निबंध-समग्र’ अनामिका प्रकाशन से २०२१ में प्रकाशित हो चुका है, और दोनों पुस्तकों को आमने-सामने रखकर उनका अंतर देखा जा सकता है |

यह टिप्पणी और इससे जुड़ी एक और टिपण्णी कल फेसबुक पर प्रकाशित हुई है,| पहले वाली टिपण्णी विनोद शुक्ल-राजकमल विवाद के प्रसंग में थी | दोनों का सम्बन्ध शिवपूजन सहाय से है | पहली टिपण्णी की बातें इस टिपण्णी में आ गयी हैं | लेकिन इस टिपण्णी से सम्बद्ध और बहुत सी बातें अभी यहीं शीघ्र अंकित होंगी जिनमें वाणी द्वारा अनधिकृत रूप से प्रकाशित 'निबंधों की दुनिया' के सम्पादन की भद्दी अशुद्धियाँ भी उल्लिखित होंगी | कुछ समय बाद शिवपूजन सहाय के जीवन में प्रकाशकों ने उनके साथ कैसा दुर्व्यवहार किया (जिसका मैं स्वयं साक्षी और भुक्तभोगी रहा) इसका भी एक संक्षिप्त उल्लेख होगा | क्योंकि यह कहानी भी अब सामने आनी चाहिए जिसे मैं ही पूरी तरह बता सकता हूँ | जब वह पूरी कहानी सप्रमाण लिखी जाएगी तो वह दूसरे ब्लॉग विभुतिमूर्त्ति पर भी पढ़ी जा सकेगी | अभी वाणी वाली पुस्तक की त्रुटिपूर्ण सम्पादकीय भूमिका की कुछ बानगी देख लीजिये |छोटी-मोती तथ्यात्मक भूलें तो अनेक हैं (जैसे १९१३ में छोटे भाई का देहांत हो गया,१९२८ में दूसरी पत्नी का देहांत हो गया, 'साहित्य-भूषण' उपाधि निराला ने दी, आदि)| लेकिन सबसे गंभीर भूल है - 'गंगा' में 'भट्नायक' कल्पित नाम से प्रकाशित श्यामसुंदर दास-लिखित 'हिंदी भाषा और साहित्य' की समीक्षा की चर्चा में उस पुस्तक के लेखक का नाम 'हरिऔध' बताना | फिर शिवजी के विषय में यह लिखना कि "जिए वे ठसक के साथ'| यदि आप पूरी भूमिका पढेंगे तो 'हास्यास्पद' शब्द भी उसके लिए प्रशंसात्मक ही लगेगा | क्या किसी प्रतिष्ठित प्रकाशक को ऐसी पुस्तक प्रकाशित करना शोभा देता है? 'विद्यापति पदावली' को 'विद्यापति रचनावली' लिखा गया है | बारह पेज की भूमिका भूलों से भरी हुई है | एक वाक्य देखिये -"मतवाला मंडल के लेखकों में हिंदी लिखना सबसे पहले उन्हीं ने (शिव जी ने) शुरू किया था | "

एक तो भ्रष्ट भूमिका, फिर बिना अनुमति के पुस्तक का प्रकाशन,फिर चुप बैठे रहना और टोकने के बाद ७.५% रॉयल्टी भी आधा अधूरा देना | क्या यह सब अनुचित, अशोभनीय व्यवहार नहीं है? क्या स्पष्टीकरण से इन अनुचित बातों का कोई तालमेल बैठता है? लेखक या उसका उत्तराधिकारी ही क्या करे, सारा जीवन-व्यापार छोड़कर ऐसे प्रकाशकों से लिखा-पढ़ी, कोर्ट-कचहरी करे ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसपर गंभीरता से विचार करने का समय अब आ गया है |

इस प्रसंग में मेरे अगले आलेख की कृपया प्रतीक्षा करें जिसकी सूचना भी मैं फेसबुक पर समयानुसार पहले दे दूंगा |


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